हिंदी नाट्य-रंगमंच और उसका विकास की संपूर्ण जानकारी

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हिंदी नाट्य रंगमंच की शुरुवात और उसके विकास यात्रा की संपूर्ण जानकारी आपको यह पर मिलेगी जिसे आप अपनी नोट्स मे लिख सकते हो

Hindi naatya rangmanch vikas yatra hindi notes: सबसे पहिले नाट्य-रंगमंच की शूरवात किस प्रकार से हुई थी और किस प्रकार से हिन्दी नाट्य रंगमंच की प्रसिद्धि बड़ाती गई उसके बारे मे संक्षिप्त रूप से हम आज यह पर जानेंगे

पर कोई भाषा को रंगमंच के बजाय नाटक से जोड़ सकता है, हालाँकि, केवल सांस्कृतिक धारणाओं से परे, यह पहचानना आवश्यक है कि नाटक किसी भाषा की साहित्यिक शक्ति के प्रमाण के रूप में कार्य करता है। इसलिए, हिंदी के नाटकीय साहित्य से मेल खाने वाले कुछ नाटकीय तत्वों की कल्पना करना संभव है

Table of Contents

हिंदी नाट्य रंगमंच की शुरुवात

भारतेंदु पूर्व युग Poorva bhartendu yug

भारतेंदु से पूर्व हिंदी नाटक: हिंदी में नाटक की ठोस शुरुआत भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक लेखन से हुई , किंतु इसके पूर्व की हिंदी में नाटकों की रचना की गई थी।  भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने नाटक ‘ निबंध ‘ में हिंदी नाटकों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि –

” हिंदी भाषा में वास्तविक नाटक के अाकार में ग्रंथ की सृष्टि हुए पच्चिस वर्ष से विशेष नहीं हुए।”

उस समय उपलब्ध नाट्य सामग्री के आधार पर भारतेंदु का यह मत उचित जान पड़ता है। किंतु बाद में हुए अनुसंधान ओं के आधार पर यह प्रतीत होता है कि , हिंदी में नाटक लेखन का आरंभ विक्रम की तेरहवीं शताब्दी से ही हो गया था। इन नाटकों का मूल प्रेरणा स्रोत क्या था ? इसको लेकर विद्वानों में मतभेद है। विद्वानों का मत एक वर्ग मानता है कि इसका मूल संस्कृत के नाटकों में है। जबकि विद्वानों का दूसरा वर्ग मानता था कि हिंदी नाटक का मूल स्रोत नाट्य परंपरा में मौजूद है।

वास्तव में हिंदी नाटक का आरंभ से ही प्रेरणा ग्रहण करते हुए हुआ है , हिंदी का पहला नाटक कौन सा है ? इसको लेकर भी आलोचकों में मतभेद है –

दशरथ ओझा के अनुसार ‘ संदेश रासक ‘

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ‘ आनंद रघुनंदन ‘

भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनुसार ‘ नहुष ‘ हिंदी का पहला साहित्यिक नाटक है।

विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में अब्दुल रहमान द्वारा लिखा गया ‘ संदेश रासक ‘ अपभ्रंस मिश्रित , पश्चिमी राजस्थानी में लिखा गया एक ऐसा नाटक है जिसे हिंदी का प्रथम साहित्य का नाटक माना जा सकता है। लेकिन कई विद्वानों के अनुसार यह नाटक ना होकर रासो ग्रंथ है।

कई विद्वानों ने अपने तर्कों के आधार पर आनंद रघुनंदन को पहला नाटक मानते हुए कहा है कि यह नाटक संस्कृत की नाट्य शैली में रचा गया है , जिसमें नांदी , सूत्रधार , विष्कभाव , आदि संस्कृत के समान ही मौजूद है। यह नाटक तुलसीदास कृत रामचरितमानस के क्रम में सात अंकों में समाप्त होता है। इसके प्रत्येक अंक में अनेक दृश्य हैं।

  • हिंदी में गद्य साहित्य का विकास 12 वीं शताब्दी के आसपास हुआ , विकास में कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
  • इस कॉलेज के विद्वानों लल्लू लाल तथा सदल मिश्र ने गिलक्राइस्ट के निर्देशन में क्रमशः प्रेमसागर तथा नासिकेतोपाख्यान नामक पुस्तके तैयार की।
  • खड़ी बोली का विकास हुआ इंशा अल्लाह खान ने ‘ रानी केतकी ‘ की कहानी की रचना की। इन ग्रंथों में खड़ी बोली का प्रयोग हुआ था।
  • आधुनिक खड़ी बोली के विकास में धार्मिक पुस्तकों का विशेष महत्व तथा योगदान रहा। जिससे ईसाई धर्म के प्रचार – प्रसार में विशेष योगदान रहा।
  • राजा राममोहन राय ने 1815 ईसवी में वेदांत सूत्र का हिंदी अनुवाद प्रकाशित करवाया। इसके बाद उन्होंने 1829  मैं बंगदूत नामक पत्र हिंदी में निकाला। स्वामी दयानंद ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखा।

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भारतेंदु युग (Bhartendu Yog )

  • भारतेंदु को हिंदी साहित्य के आधुनिक युग का प्रतिनिधि माना जाता है।
  • उन्होंने कवि वचन सुधा , हरिश्चंद्र मैगजीन और हरिश्चंद्र पत्रिका निकाली।
  • भारतेंदु ने अनेक नाटकों की रचना की – चंद्रावली , भारत – दुर्दशा , अंधेर नगरी , आदि प्रमुख नाटक थे। इनके नाटक को रंगमंच पर भी काफी लोकप्रियता मिली।
  • इस काल में निबंध , नाटक , उपन्यास तथा कहानियों की रचना भी समानांतर होती रही।
  • भारतेंदु युग के प्रसिद्ध लेखक – बालकृष्ण भट्ट , प्रताप नारायण मिश्र , उपाध्याय बद्रीनाथ चौधरी प्रेमघन , देवकीनंदन खत्री थे जो अधिकांशत पत्रकार थे।
  • श्रीनिवास दास के उपन्यास परीक्षा गुरु को हिंदी का पहला उपन्यास माना जाता है।
  • देवकीनंदन खत्री का चंद्रकांता तथा चंद्रकांता संतति आदि इस युग के प्रमुख उपन्यास है।
  • यह उपन्यास इतने लोकप्रिय हुए कि इन को पढ़ने के लिए अहिंदियों ने हिंदी सीखी। जो अहिंदी भाषी लोग थे उन्होंने हिंदी का ज्ञान अर्जन किया।

नाटक के विधागत विशिष्टता –

  1. दृश्यता
  2. संवाद
  3. मिश्र कला
  4. सज्जा
  5. संगीत
  6. द्वन्द संघर्ष
  7. क्रियाकलाप

यह 7 प्रकार के कुछ नाटक के विधागत विशिष्टता थे

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भारतेंदु युग नाटक 1850 – 1900 (Bhartendu yug Naatak)

  • मुख्यतः नाटक का आरंभ भारतेंदु युग से माना जाता है।
  • नवजागरण की विशेषात्मक अवलोकन की थी , तथा स्वयं मूल्यांकन की भी थी।
  • नवजागरण का कारण था सामूहिक चेतना , सांस्कृतिक चेतना।
  • भारतेंदु युग में नाटक को सामाजिक कला माना गया। आतः नवजागरण काल में नाटक एक अहम भूमिका निभा रहा था।
  • ‘ नाटक ‘ नामक निबंध से नाटक साहित्य का आरंभ माना गया है।
  • भारतेंदु हिंदी नाटक  – अंधेर नगरी , भारत दुर्दशा  ,  मुद्राराक्षस , सत्य हरिशचंद्र , वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। 

मोहन राकेश 1947 के बाद (Mohan Rakesh ke bad ka natya manch)

मोहन राकेश 1950 के दशक के दौरान हिंदी साहित्य के भीतर नई कहानी साहित्यिक आंदोलन में एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में उभरे। उन्हें शुरुआती आधुनिक हिंदी नाटक, “आषाढ़ का एक दिन” लिखने का श्रेय दिया जाता है, जिसने संगीत नाटक अकादमी द्वारा आयोजित एक प्रतियोगिता में जीत हासिल करके प्रशंसा हासिल की थी।

  • आधुनिक हिंदी साहित्य में मोहन राकेश को हटाकर कोई चर्चा नहीं की जा सकती है। मोहन ने हिंदी नाट्य धारा को नवीन दिशा प्रदान की है।
  • ” कुछ लोगों की जिंदगी में भी विखराव होता है , मैं अपने को ऐसे ही लोगों में पाता हूं। बिखरना और बिखेरना मेरे लिए जितना स्वभाविक है , संभालना और समेटना उतना ही अस्वाभाविक। ”  (मोहन राकेश)
  • सामान्यता हिंदी साहित्य के अंतर्गत मोहन राकेश का व्यक्तित्व अंतर्विरोधों का व्यक्तित्व माना जाता है। लेकिन यह एक सतही आकलन है , क्योंकि व्यक्तित्व का उजास अन्तः और बाह्य का सम्मेल से ही निखरता है।
  • मोहन राकेश का परिवेश बहुत उत्तम नहीं था , इनके परिवार में अंधविश्वासों का भी प्रबल प्रकोप था।
  • मोहन राकेश के घर का आर्थिक परिवेश भी अनुकूल नहीं था , मोहन राकेश का आरंभिक नाम मदन मोहन था। नाम परिवर्तन का कारण है पिता का आकस्मिक निधन तब राकेश की उम्र 16 वर्ष की थी।
  • राकेश जी के नाटकों में पूर्ण भारतीय भावना का निर्वाह किया है। उनका कथ्य और शिल्प दोनों भारतीय है , उनके नाटक मौलिक नाटक हैं।
  • आषाढ़ का एक दिन तथा लहरों के राजहंस में प्राचीन भारतीय व्यवस्था को उजागर किया गया है।
  • आधे – अधूरे नाटक में आधुनिक भारतीय जीवन की विसंगति और मानसिकता मुखरित हुई है।
  • पैरों तले की जमीन  में नव धनाढ्यों की भारतीय जीवन पद्धति व्यक्त हुई है।

वस्तु विभाजन में नया प्रयोग –

  • नाटकों की वस्तु का विभाजन अंकों में होता रहा है , अंको की इस संख्या में समानता नहीं मिलती है।
  • संस्कृत नाटकों में पांच से सात अंक मिलते हैं। प्रसाद जी के नाटक में भी यह संख्या भिन्न-भिन्न है।
  • मोहन राकेश ने अपने नाटकों का विभाजन तीन अंकों में ही किया है। आषाढ़ का एक दिन तथा लहरों के राजहंस में तीन ही अंक देखने को मिलते हैं।
  • आधे – अधूरे तथा पैरों तले की जमीन  का विभाजन अंकों में नहीं किया गया है।

पात्रों का सीमित संख्या (Paatron ka seemit sankhya)

  • मोहन राकेश नाट्य सृजन की अप्रतिम प्रतिभा थे। उनके सभी नाटक अभिनय योग्य है।
  • पात्रों की अधिक संख्या नाटकों के सफल अभिनय में बाधा पहुंच आती है। इसलिए राकेश ने अपने नाटकों में सीमित पात्रों की संख्या का ही विधान किया है।
  • आषाढ़ का एक दिन में वैसे बारह पात्र का उल्लेख हुआ है ,  लेकिन प्रमुख पात्र अंबिका , मल्लिका , कालिदास , विलोम तथा मातुल है।
  • लहरों के राजहंस में भी नौ पात्रों का उल्लेख हुआ है। इस नाटक में प्रधान पात्र – सुंदरी और नंद है। सुंदरी और नंद के द्वंद्व से ही संपूर्ण कथानक निर्मित होती है।
  • आधे – अधूरे  में कहने के लिए नौ पात्र हैं , लेकिन इस नाटक में भी दो ही पात्र प्रमुख है – महेंद्रनाथ तथा सावित्री। इन्हीं दोनों की मानसिक क्रिया से संपूर्ण नाटक को कथा प्रदान करती है।

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दृश्य योजना नहीं है या अभाव

  • प्राचीन नाटकों में दृश्य योजना को बहुत महत्व दिया जाता था। लेकिन आधुनिक नाटककारों ने इसका पूर्णता अभाव मिलता है।
  • जयशकंर प्रसाद आदि नाटककारों की रचनाओं में दृश्य योजना की सघनता है।
  • इन नाटककारों का मानना था कि दृश्य योजना का विशेष प्रबंध करने से नाटक में ज्यादा खिचाव होता है जिसके कारण दर्शक पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
  • वर्तमान समय में वैसे दर्शक नहीं है जैसे प्राचीन समय में हुआ करते थे।

वेशभूषा , वस्त्र , परिधान में परिवर्तन नहीं किया

  • पात्रों द्वारा वेशभूषा का परिवर्तन ना करना भी मोहन राकेश के नाटय शिल्प की एक प्रधान विशेषता है।
  • उनके प्रत्येक नाटक के पात्र जिस वेशभूषा में एक बार उपस्थित हुए हैं , उसी में अंत तक विद्यमान रहते हैं।
  • राकेश के नाटक में साधारण और मध्यमवर्ग की कथावस्तु रहती यह यह एक बड़ा कारन है कि  राकेश के नाटक में परिधान को लेकर विशेष आग्रह नहीं है।

पर्दे का नए रूप में प्रयोग

  • मोहन राकेश के नाटकों में पर्दे को अनावश्यक माना गया है। वह इस बंधन से उसे मुक्त करने के अभिलाषी हैं।
  • आषाढ़ का एक दिन नाटक का प्रारंभ पर्दों के उठने से होता है , लेकिन उसका समापन परदा गिरने के साथ नहीं होता है , वरन मेघ गर्जन और बिजली चमकने से होता है।
  • लहरों के राजहंस का प्रारंभ पर्दा उठने पर होता है , पहले अंधकार रहता है , फिर धीरे-धीरे प्रकाश हो जाता है। इस नाटक का अंत प्रकाश के धीरे-धीरे बंद होने से होता है।

मोहन राकेश की नाट्य दृष्टि ( Mohan rakesh ki naatya drishti )

  • मोहन राकेश की नाट्य दृष्टि बड़ी विषम है , नाटककार ने अपने नाटकों में जीवन का अत्यंत निकट से चित्रण किया है।
  • वस्तुतः उनके समस्त नाटक नारी – पुरुष के जीवन से संबंधित है। अनेकों अनेक रूपों को आवृत करते हैं आषाढ़ का एक दिन , लहरों के राजहंस ,  आधे – अधूरे  ,  पैरों तले की जमीन। आदि सभी नाटक स्त्री – पुरुष के संबंधों को रेखांकित करते हैं।

मोहन राकेश की दृष्टि का अध्ययन किस प्रकार किया जा सकता है

  1. राकेश का स्त्री पुरुष विवेचन
  2. पुरुष के जीवन की मूल त्रासदी
  3. नारी के जीवन की मूल त्रासदी
  4. मनुष्य जीवन की सार्थकता और असफलता
  5. समय तत्व का मूल्य
  6. इच्छा (कामना) तत्व का मूल्य
#1 राकेश का स्त्री पुरुष विवेचन –
  • स्त्री – पुरुष विवेचन ही मोहन राकेश के नाटकों का मूल स्वर है।
  • आषाढ़ का एक दिन में प्रसिद्ध संस्कृत में महाकवि कालिदास की कथा कही गई है।
  • उनकी प्रेयसी मल्लिका की व्यथा तथा कालिदास के प्रति लगाव अभिव्यंजक हुआ है।
  • लहरों के राजहंस में गौतम के भाई नंद तथा उसकी पत्नी सुंदरी की स्थिति निरूपित की गई है।
  • वैसे यह बुद्ध के समय की स्थिति है लेकिन इसमें मानव जीवन की वास्तविकता की अभिव्यक्ति हुई है।
  • आधे – अधूरे में एक समसामयिक दंपत्ति की कहानी है।
  • पैरों तले की जमीन नाटक में संबद्ध – असम्बद्ध नारी – पुरुष के संबंधों का विवेचन किया गया है।
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#2  पुरुष के जीवन की मूल त्रासदी (Purush ke jeevan ki mool trasadi)
  • राकेश ने अपने नाटकों में पुरुष की त्रासदी को उठाया है।
  • आषाढ़ का एक दिन नाटक में कालिदास के जीवन की त्रासदी व्यक्त की गई है। कालिदास को शासन सत्ता मिल जाती है , लेकिन उसे वहां संतोष नहीं मिल पाता। वह सब कुछ छोड़ कर मल्लिका के पास लौट जाता है।
  • लेकिन यह वापसी उसके जीवन की बहुत बड़ी त्रासदी है , क्योंकि मल्लिका के बारे में उसने जो सोच रखा था वह अब नहीं है।
  • मल्लिका अब एक बच्चे की मां है। कालिदास पलायन कर जाता है , यहीं पर नाटक की समाप्ति है।  जो कालिदास के जीवन की बहुत बड़ी विडंबना है।
  • लहरों के राजहंस नंद को एक तरफ सुंदरी की रुपाशक्ति की ओर आकर्षित करती है , और दूसरी तरफ गौतम बुद्ध का प्रभाव अपनी तरफ।
  • इन्हीं दोनों पाटों के मध्य वह आगे बढ़ता है , परिणामतः वह ना तो भिक्षु बन पाता है , और ना ही सुंदरी का आदमी है।
  • आधे – अधूरे में महेंद्र नाथ के जीवन की त्रासदी अपनी पत्नी के तालमेल ना बैठ पाने में प्रकट हुई है।
  • उसके जीवन की यह भयंकर त्रासदी उसके प्राणों के साथ ही समाप्त होती है।
#3 नारी के जीवन की मूल त्रासदी
  • मोहन राकेश ने जिस प्रकार पुरुष के जीवन की मूल त्रासदी को व्यक्त किया है , उसी प्रकार नारी जीवन की मूल त्रासदी को उजागर किया है।
  • “‘ चारों नाटकों में स्त्री-पुरुष संबंधों की विडंबना को अलग-अलग स्तरों पर पकड़ने के प्रयत्न में नाटककार को अभूतपूर्व सफलता मिली है ” – (निर्देशक विवेक झा )
  • आषाढ़ का एक दिन नाटक में यह त्रासदी मल्लिका के माध्यम से व्यक्त हुई है।  मल्लिका जिसको चाहती है उसको प्राप्त नहीं कर पाती।
  • मल्लिका की मां अंबिका का जीवन भी त्रासद पूर्ण है।
  • मोहन राकेश इस युग के प्रमुख नाटककार थे। नाटक की विषय – वस्तु को आधुनिक संदर्भ में जोड़ा।
  • मोहन राकेश के नाटकों की विशेषता नाटकों को आधुनिक संदर्भ से जोड़ना , नाटकों की रचना इस प्रकार की कि वह रंगमंच पर दिखाया जा सके।
  • उनकी विषय – वस्तु स्त्री पुरुष के संबंध पर  आधारित रही।
  • उनके नाटक की कथावस्तु पारिवारिक और पारिवारिक उलझन मुख्य रही।
  • इनके नाटकों में स्त्री-पुरुष शहरी मध्यम वर्गीय थे।

मोहन राकेश के नाटक ( Mohan rakesh ke naatak ) –

  1. आषाढ़ का एक दिन ( कालिदास से सम्बन्धित )
  2. लहरों के राजहंस  ( नंद वंश से सम्बन्धित  )
  3. आधे – अधूरे  ( पारिवारिक कहानी )
  4. पैरों तले जमीन: यह नाटक अपूर्ण रह गया था , परंतु बाद में कमलेश्वर ने पूरा किया।

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मोहन राकेश के नाटक में विषयवस्तु

  • मध्यमवर्गीय संदर्भ में
  • तनाव टूटता परिवार
  • स्त्री की स्वाधीनता का प्रश्न
  • पांच पुरुष पात्र हैं , परंतु अभिनय एक ही पात्र ने किया है। ( आधे-अधूरे नाटक )
  • सावित्री एक पुरुष को ढूंढ रही है जिसमें सभी गुण हो ,
  • अंततः उसे यकीन हो जाता है कि सारे पुरुष एक जैसे हैं ,  मगर चेहरे अलग – अलग।

प्रसाद युग ( Prasad Yug ) –

  • महावीर प्रसाद द्विवेदी नाटकों की दृष्टि से प्रसाद के नाटक को अंधकार युग माना है।
  • नाटकों को निम्न वर्ग भी देखते हैं। अतः द्विवेदी ने नाटक पर ध्यान न देकर अन्य काव्य कला पर ध्यान दिया था।
  • जयशंकर प्रसाद ने भारतेंदु के बाद पुनः गति प्रदान की , उन्होंने कविता के साथ – साथ नाटकों की भी एक अप्रतिम रचना की।
  • जयशंकर प्रसाद ने भारतेंदु से भिन्न नाटकों का विषय बनाया और गंभीर नाटकों की रचना की।
  • भारतेंदु ने जिस प्रकार साधारण बोलचाल की भाषा में नाटक को लिखा उसे प्रसाद ने साहित्य भाषा में नाटक लिखा जो आम बोलचाल की भाषा न थी।
  • भारतेंदु युग में प्रत्येक नाटक को रंगमंच पर खेला भी गया।  यही भारतेन्दु युग की विशेषता रही।
  • प्रसाद युग में रंगमंचियत्ता कठिन थी। इसका प्रमुख कारण था पारसी रंगमंच जो व्यवसायी रंगशाला था और इसका उद्देश्य व्यवसाय करना था जिसके कारण इस रंगमंच पर निम्नकोटि के नाटक का मंचन किया जाता था।
  • प्रसाद जी का मन्ना था कि – लेखक को यह चिंता करना नहीं होता कि नाटक ,  रंगमंच पर खेला जाएगा या नहीं। यह काम निर्देशक का होता है। ‘
  • प्रसाद का मानना था कि नाटक रंगमंच के लिए नहीं है रंगमंच नाटक के लिए है। यही कारण है कि  प्रसाद जी के नाटक शास्त्रीय शैली में लखे गए।

जयशंकर प्रसाद के नाटक की विषय वस्तु ( Jaishankar prasad ke naatak ki vishay vastu ) –

  • ऐतिहासिक , सांस्कृतिक , कल्पना ( क्योंकि वह छायावादी कवि थे छायावादी कवि कल्पना में विचरण करते थे )
  • उस समय सांस्कृतिक (नवजागरण) चेतना का समय था। प्रसाद ने इसलिए अपने नाटकों को ऐतिहासिक विषय से जोड़ा क्योंकि , वह इतिहास के माध्यम से भारतीय जनमानस की हताशा पीड़ा को अतीत की गौरव – गान से सहला रहे थे।

रंगमंच / रंगमंचीयता (Rangmanch)

  • भाषा शैली / संवाद  ( उच्चारण करना आसान नहीं था , क्योंकि भाषा में संस्कृत और उत्क्लिष्ट भाषा का प्रयोग किया।)
  • दर्शक वर्ग वैसा नहीं था ( दर्शक सहृदय नहीं था , आसान शब्दों में पढ़े लिखे दर्शक कम थे। )
  • लंबे नाटक ( प्रसाद जी का नाटक रंगमंच के अनुकूल नहीं था वह काफी बड़े हुआ करते थे जिसके कारण रंगमंच पर दिखाना आसान नहीं था। )
  • दृश्य योजना ( जिसे रंगमंच पर दिखाना आसान नहीं था। )
  • तकनीकी समस्या
  • गीतों की अधिकता ( नाटकों में भाव विभोर होने पर गीत आने से बोरियत महसूस होती है। )

कई विद्वानों ने प्रसाद के नाटकों को रंगमंच के लिए नहीं माना। 

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नाटक के तत्व (Naatak ke tatva) –

  • भरतमुनि का कथन है कि – पंचम वेद अर्थात नाट्य वेद की रचना सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने चारों वेदों से चार तत्व लेकर की
  • यह चार तत्व – संवाद (पाठ्य) , गीत  , अभिनय और रस है।
  • भरत मुनि का संबंध नाटकीय प्रयोग से था।  जिसे नाट्य संज्ञा दी गई। अतः उन्होंने संवादों के साथ गीत अभिनय और रस की भी प्रतिष्ठा की।
  • दशरूपक कार में वस्तु और नेता की संवादों को स्वीकृति देकर रस को अनिवार्य मांना।
  • आचार्य भट्ट लोलक ने मूल पात्र में रस को स्वीकार किया।
  • आचार्य शंकुक ने अभिनेता
  • आचार्य भट्टनायक ने दर्शक में रस को माना जिस पर आचार्य अभिनव गुप्त ने मोहर लगाकर विवाद समाप्त किया।
  • भारतीय नाट्य शास्त्र में वस्तु , नेता , रस , गीत और अभिनय को नाटकीय तत्व माना है।
  • पाश्चात्य में वस्तु , नेता एवं अभिनय को ही स्थान मिला, गीत एवं रस को नहीं। इसके स्थान पर संवाद , भाषा शैली और उद्देश्य को माना गया है।
  • कथावस्तु , पात्र , संवाद , भाषा शैली , उद्देश्य , अभिनय  यह तत्व नाटक के प्रचलित हैं।
  • भारतेंदु में नाटक तत्व , वस्तु , पात्र , रस , संवाद , भाषा शैली , देशकाल , उद्देश्य , अभिनय , आठ तत्व अपनाए गए हैं।

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