प्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्रा लिखित कविता सत्यकाम की सम्पूर्ण व्याख्या जानिए कैसे एक व्यक्ति के जीवन मे परिवर्तन आता है और वह एक भिक्षु बनता है
सत्यकाम एक प्रसिद्ध कविता है जो की कवि भवानी प्रसाद मिश्रा ने लिखी है जिसको पढ़ने के बाद आप को पता चलता है की, यह कहानी सत्यकाम की यात्रा के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसमें एक गाँव में उनकी विनम्र शुरुआत, एक प्रतिष्ठित वकील के रूप में उनकी समृद्धि की ओर बढ़ना
अंततः एक भिक्षु के रूप में चिंतन के जीवन में उनके परिवर्तन का पता चलता है। यह उनकी परिवर्तनकारी यात्रा पर प्रकाश डालता है, उनके गहन बलिदानों और आध्यात्मिक ज्ञान और अस्तित्व के सार की निरंतर खोज पर प्रकाश डालता है
इस कविता की पूरी व्याख्या आज आपको देखने को मिलेगी साथ मे आप एक pdf भी मिलेगी जहा पर यह कविता भी होगी और साथ ही इस कविता की पूरी व्याख्या भी होगी जिसे आप Download कर सकते हो
सत्यकाम की पृष्ठभूमि –
- सत्यकाम पुरानी कथा पर आधारित कविता है। सत्यकाम की माता जवाला है।
- पौराणिक कथा में आधुनिक दृष्टि रखना ही आधुनिक कवियों की विशेषता रही है।
- दृष्टि में फर्क राम , राम ( राम निर्गुण कबीर ) , ( राम सगुण दशरथ पुत्र तुलसीदास )
- ब्राह्मणों की सेवा के वरदान से सत्यकाम की प्राप्ति हुई थी।
- आधुनिक काल में पौराणिक कथाओं का खंडन किया गया है।
- सत्यकाम कहता है उसी ज्ञान को प्राप्त करने जाना है जिससे ज्ञानी , ज्ञानी हो जाता है और जिसने ज्ञान की ध्वनि नहीं सुनी हो उसे भी ज्ञान की ध्वनि सुनाई देने लगती है।
- जिसमें समस्त पुण्य का निवास रहता है जिससे पाप का अंत हो जाता है उसी ज्ञान को प्राप्त करना है।
- जिस ज्ञान के प्राप्त होने से अखंड पत्थर भी धूल में मिल जाता है।
- दुख इसके प्रभाव में आने से नष्ट हो जाता है। जिसके संपर्क में आकर भीमकाय पर्वत भी अक्षर में समेट जाता है। उस ज्ञान की प्राप्ति करना है।
- हे बालक ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार केवल ब्राह्मणों का है।
- यहां जातीय महत्ता व रूढ़िवादी सोच को उजागर किया गया है।
- आधुनिक समय में इस प्रकार के संतान को अवैध कहा जाता है।इसी पर भवानी प्रसाद मिश्र ने दृष्टिपात किया है।
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सत्यकाम कविता
माता जवाला से
पुत्र सत्यकाम ने
होकर प्रणत पाद – पद्यों में प्रश्न किया –
पुण्ये , पिता है कौन मेरे बताइए,?
कुल के अनुरूप मैं शिक्षा का इक्छुक हूं
मेरा कुल कौन – सा है माता जताइए,
जिससे अमत हो मत अश्रुत हो श्रुत जिससे
जिससे अज्ञात , ज्ञात होता है माता
जिसमें समस्त पुण्य करते हैं निवास सदा ,
जिसमें अस्तित्व पाप खोता है माता ,
आखान – पाषाण प्राप्त पांसु पिण्ड होता है
जैसे स्वमेव नष्ट भेदनाभिप्राय से
वैसे हो अखंड दुख होते हैं खंड-खंड
जिसमें संसर्ग पाकर अक्षर अकाय से
वैसा आदेश इष्ट गुरुकुल में पाना है ,
मुझको उद्गीथ – रूप प्राण – गान गाना है ,
मैं हूं किंगोत्र माता मुझको बताइए ,
मुझको जताइए है मेरे पिता कौन ?
माता जवाला मौन
उसके शांत मुख पर लज्जा की लाली
और कष्ट की घटा – सी आयी ,
किंतु क्षण दूजे ही मंगल – प्रदाता एक ,
सर्वसंकोचहारी आशा की उजेली छायी
धैर्य से उठाकर आंखे ,
गौरव को निहारा अपने
उनको लगा कि
सत्य होने पर हुए हैं सपने
स्निग्ध शांत सत्यकाम ,
बोले फिर धीरे से –
” माता कहूंगा क्या ,
चुप ही रहूंगा क्या
हरिद्रुमान गुरु गौतम जब
पूछेंगे पिता का नाम !
उत्तर में वैसे ही ,
सत्यकाम जैसी ही , गुंजी गिरा –
” हे वत्स , तेरा कल्याण हो
गुरु की कृपा से तुझे
मेरे हे , आशेष पुण्य
ऐसा ही अश्रुत – पूर्ण सम्यक ध्यान हो ;
जैसे लवण से स्वर्ण स्वर्ण
स्वर्ण से रजत – मय कंकण
अथवा रजत से जैसे
त्रपु का सफल हो टंकण
वैसे मुझ दीना के ,
अभागिन कर्म – हीना के ,
तेरे रस – संज्ञक ओज तेज के प्रश्न से ,
यज्ञावरिष्ट का प्रतिसंविधान है
साहस समेट फिर से ,
माता ज्वाला बोली –
” वत्स हे , निवेदन करना ,
गुरु से कमल का जन्म ;
मैं हूं नितांत हीन ,
जाने किसी पुणे से
मुझमें हुआ है पुत्र
तुझ-से विमल का जन्म ;
योवन में सेवा करके
जीवन बिताया मैंने ,
सेवा के दिनों से सौम्य
तुझको उठा पाया मैंने
मैं भी नहीं जानती
तेरा कुल – शील हे ,
शोभन सुनील हे।
मैं हूं ज्वाला
और तू है जाबालि मेरा !
माता ने इतना कहा
कहकर आकाश हेरा,
स्नेह – भरित आंखों से
सजल सिक्त पाँखो से
सत्यकाम नत हुए
श्रद्धा प्रणत हुए।
हवनाग्निक पूजने को
जैसे यज्ञ – दीप पहुंचे ,
हरिद्रुमान गुरु गौतम समीप पहुंचे ,
वैसे ही समित्पाणि
स्वर्ण – देह सतकाम ,
गुरु के पुण्य चरणों में
झुककर किया प्रणाम ,
बोले ” भगवान मैं सन्निधि में आया हूं
आप मुझे ग्रहण करें
अपने शिष्य भाव से
ब्रम्हचर्य – वास हेतु
समिध – भार लाया हूं ,
जिससे मत हो मत
अश्रुत हो श्रुत
जिससे अज्ञात
ज्ञात होता है प्रभु हे ,
जिसमें समस्त पुण्य
करते हैं निवास सदा
जिसमें अस्तित्व
पाप खोता है प्रभु है ,
वैसा आदेश इष्ट
मुझको प्रभु कीजिए
मुझको उद्गीथरूप
प्राण-दान दीजिए। “
गुरु ने कहा , ” है सौम्य ,
ब्रम्ह – ज्ञान दीक्षा का
केवल अधिकार है
ब्राह्मण सगोत्र को ,
तुम हो किंगोत्र वत्स ?
तुमसे हुआ है धन्य
कौन – से कृती का कुल ?
शांत था तपोवन सांध्य सूर्य की मरीचियों में
हौले से हिलायी गयी सरयू की विचियों में
इंगुदी पलाश – शाल मौन खड़े थे चुपके
चंचल हवा के प्राण उन पर पड़े थे चुपके
कितनी प्रसन्न कलियां कितने सहास फूल
भूले हुए थे उस क्षण अपनी सदा की झुल
कितने अबाध्य – लोल मृग – दल प्रशांत थे ,
काकली विहीन कीड़ नीड़ों में श्रांत थे ,
शांत- चित सतनाम
चरणों में नत हुए
श्रध्या प्रणत हुए
बोले ” हैं देव , में हूं अनुचर तव सतकाम
मेरे पिता का नाम मुझको अज्ञात है ,
माता से पूछा था आने के पहिले मैंने
उसने जो बताया
प्रभु है , मुझको वही है याद –
यौवन में सेवा करके
जीवन बिताया मैंने ,
सेवा के दिनों में सौम्य
तुझको था पाया मैंने ,
मैं भी नहीं जानती –
तेरा कुलं शीलं हे ,
मैं हूं ज्वाला और तू है जावलि मेरा !
गुरु के हृदय में एक पीड़ा – सी
उमड़ती आयी ,
किंतु क्षण दूजे ही
मंगल – प्रदाता एक
स्नेह की घटा – सी छायी
स्नेह भरित आंखों से ,
सजल सिक्त पाँखों से ,
गुरु ने लगाया गले ,
सरल सत्यकाम को ;
बोले , निष्पाप है ,
निश्चय ही सुपुत्र हो तुम ,
सत्य – कुल जात हो ,
वत्स तुम ब्राह्मण हो।
ब्रह्म ज्ञान – विद्या का ,
तुझको अधिकार है ,
सौम्य , शिष्य भाव तेरा ,
मुझको स्वीकार है।
सत्यकाम कविता की व्याख्या और एक दृष्टि लेखक की
भवानी प्रसाद मिश्र गांधीवादी विचारधाराओं से प्रभावित थे। उनके दृष्टि मैं ब्राह्मणवादी सोच भी परिलक्षित होती है। भवानी प्रसाद मिश्र प्रगतिशील कवियों में अग्रणी थे , अतः उनकी यह दृष्टि सत्यकाम कविता में भी प्रकट होती है। सत्य काम कविता पौराणिक कथा पर आधारित है ,जिसमें सत्यकाम की माता जवाला होती है और वह किस प्रकार विद्या ग्रहण के लिए गुरुकुल जाते हैं। वह सारा वृत्तांत इस कविता में समाहित है।
सत्यकाम अपनी माता जवाला से उनके चरणों में झुक कर पूछते हैं हे माता ! मेरे पिता का नाम बताइए मेरे कुल का नाम बताइए , मुझे गुरुकुल में जाकर शिक्षा प्राप्त करनी है। जिस शिक्षा से अज्ञानता दूर होती है , जिससे अस्तित्व में आकर पाप भी समाप्त हो जाता है। उस ज्ञान को प्राप्त करना है , जिस ज्ञान के प्रभाव में आकर एक विशालकाय पर्वत भी छोटे से शब्दों में समा जाता है , उस ज्ञान को पाकर दुख भी दूर हो जाते हैं। मुझे उसी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करनी है। गुरुकुल में गुरु का सानिध्य प्राप्त करना है। अतः मुझे मेरे पिता व कुल का परिचय कराइए।
सत्यकाम के प्रश्न से माता जवाला लज्जित होती हैं , वह यह नहीं बता पाती कि उनका कुल क्या है ? उनके पिता का नाम क्या है। माता जवाला वह स्वयं भी नहीं जानती थी। सत्यकाम को माता ज्वाला ने आशीर्वाद स्वरूप में प्राप्त किया था अतः वह उनके पिता का नाम नहीं बता सकती थी। भवानी प्रसाद मिश्र इस पर अपनी दृष्टि डालते हुए बताते हैं कि इस प्रकार के संतान को वर्तमान समय में अवैध संतान माना जाता है। आज का विज्ञान पुराने अंधविश्वासों को नकारता है। सत्यकाम माता के चुप रहने पर बोलते हैं माता हरिद्रुमान गौतम जब मेरे कुल और पिता का नाम पूछेंगे तो मैं क्या कहूंगा ? मैं क्या चुप रहूंगा ? मुझे किस प्रकार ज्ञान की प्राप्त कर हो सकती है मुझे बताइए ? माता कुछ समय शांत रहते हुए कहती हैं- हे ! वत्स हे पुत्र तेरा कल्याण हो , तुझे वह ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो जिससे नमक से सोना , सोने से कंगन और कंगन से शीशा वैसे मुझे तू दीन-हीन अभागिन का पुत्र है। ब्राह्मणों की सेवा करके तुझे मैंने प्राप्त किया था। कहते हुए माता जवाला पुत्र सत्यकाम को अपने बाहों में समेट लेती हैं और कहती हैं हे वत्स , पुत्र गुरु के कमल समान चरणों में झुककर उन्हें प्रणाम करना और बताना यौवनावस्था अवस्था में मैंने गुरु की सेवा कर जिससे तेरा जन्म हुआ है।
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माता के इन उत्तर को सुनकर सत्यकाम माता के चरणों में श्रद्धा झुके और अपने गुरु के पास उसी प्रकार पहुंचे जैसे यज्ञ – दीप हवन की अग्नि को बुझने से पूर्व पहुंचे थे। हरिद्रुमान गुरु गौतम के समीप पहुंचकर गुरु के चरणों में सत्यकाम झुके। प्रणाम किए और उन्होंने अपना सानिध्य स्वीकार करने के लिए कहा। सत्यकाम ने गुरु को बताया कि मैं आपके सानिध्य में शिक्षा ग्रहण करने आया हूं , मुझे वह शिक्षा प्राप्त करनी है जिससे पाप का नाश होता है , प्रभु की प्राप्ति होती है , वैसा मुझे ज्ञान प्रदान कीजिए।
सत्यकाम की बात सुनकर गुरु हरिद्रुमान सत्यकाम को आशीर्वाद देते हुए बताते हैं कि हे पुत्र ! शिक्षा का अधिकार केवल ब्राह्मण का है तुम कौन सी जाति के हो ? पिता का नाम क्या है ? यह सब मुझे बताओ। सत्यकाम चुपचाप खड़े रहे सारा वातावरण बिल्कुल शांत और स्तब्ध सत्यकाम की तरह खड़ा रहा। शांत चित्त से सत्यकाम गुरु के चरणों में झुके और कहा मुझे मेरे पिता का नाम ज्ञात नहीं है, किस कुल का हूँ यह मुझे ज्ञात नहीं है। माता से आने के पहले पूछा था तो उन्होंने बताया योवन में सेवा करके अपना जीवन बिताया था। गुरु की सेवा से आशीर्वाद स्वरुप सत्यकाम का जन्म हुआ। गुरु के हृदय में पीड़ा सी उमड़ आयी। किंतु दूसरे ही क्षण एक मंगल को प्रदान करने वाली छटा घिर के आई। स्नेह भरी आंखों से दोनों बाहें फैलाकर सत्यकाम को गुरु ने गले से लगाया और कहा है पुत्र तुम निश्चल हो तुम सत्य बोलते हो तुम ब्राह्मण हो , तुम्हें ज्ञान विद्या का अधिकार है, मुझे तुम्हारा शिष्य भाव सहर्ष स्वीकार है।